बलरामपुर -रामानुजगंज। छत्तीसगढ़ की आदिवासी धरती पर एक और लाश गिरी है लेकिन ये सिर्फ एक इंसान की नहीं, यह इंसाफ, संविधान और मानवीयता की लाश है। 22 अप्रैल 2025 को पहाड़ी कोरवा जनजाति का 38 वर्षीय भईरा कोरवा उस सड़ी हुई व्यवस्था से हार गया, जो दलालों, गुंडों और सत्ता के संरक्षण में पल रहे ‘मग्गू सेठ’ जैसे अपराधियों की रखैल बन चुकी है। भईरा कोरवा ने आत्महत्या की नहीं, उसे मारा गया, योजनाबद्ध रूप से, क्रूरता से, और प्रशासनिक मिलीभगत से। वह इसलिए मरा क्योंकि उसने अपनी ज़मीन पर दावा किया। वह इसलिए मरा क्योंकि उसने एक माफिया के खिलाफ आवाज़ उठाई, जिसका नाम लेने से भी अफसर, नेता और पुलिस कांपते हैं विनोद अग्रवाल उर्फ मग्गू सेठ।
*”माफिया ज़िंदा है, आदिवासी मर गया।” क्या यही है इस लोकतंत्र का न्याय?* भईरा का बेटा चीख-चीखकर कहता है “मेरे पिता की हत्या हुई है। प्रशासन ने आंखें मूंद लीं, पुलिस ने धमकाया, और हमारी ज़मीन छीन ली गई।” क्या एक ‘राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र’ की यह दुर्गति नहीं बताती कि आदिवासी आज भी इस देश में सिर्फ वोट बैंक हैं, इंसान नहीं?
मग्गू सेठ एक नाम, जो अब डर नहीं, गुस्से का प्रतीक है : बलरामपुर जिले की राजपुर थाना सीमा और बरियों चौकी में फैली उसकी साम्राज्यिक लूट, दर्जनों गंभीर आपराधिक मामले, फिर भी कभी जेल का मुंह न देखना क्यों? क्योंकि वह जानता है, कौन अफसर बिके हुए हैं, कौन नेता उसकी जेब में हैं, और कौन पुलिसवाले सिर्फ उसका आदेश मानते हैं।
उसने भईरा कोरवा और अन्य कोरवा परिवारों की ज़मीन हड़पने के लिए 14 लाख का चेक दिया नकली। दस्तखत नहीं, जबरदस्ती अंगूठा लगवाया। दस्तावेज नहीं समझाए, सीधे हड़प लिए। और जब आदिवासी बोलेउन्हीं पर केस बना दिए। यह कानून है या लुटेरों का साम्राज्य?
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जिसका खून बहा है, उसकी चीखों का जवाब कौन देगा?बरियों, राजपुर, भिन्सारी, भाला जैसे इलाकों में आदिवासी समाज अब खौल रहा है। सड़कें गरम हैं, जनसभा का शंखनाद हो चुका है। सवाल साफ है: कब तक सहेंगे यह अन्याय? कब तक मरेंगे हम चुपचाप?
सरकार चुप है, पुलिस मूक है, लेकिन आदिवासी अब जाग चुका है : यह मौत नहीं, क्रांति की शुरुआत है। अगर इस बार भी मग्गू सेठ जैसे अपराधियों पर कार्रवाई नहीं हुई, तो आदिवासी समाज सड़कों पर होगा और तब सिर्फ सवाल नहीं उठेंगे, इंकलाब होगा।