रायगढ़, छत्तीसगढ़। आदिवासी अंचलों में खनन का ‘विकास मॉडल’ अब सिर्फ जंगलों को ही नहीं, बल्कि समुदायों की जड़ें, संस्कृति, आजीविका और जैव विविधता को भी निगलता जा रहा है। रायगढ़, कोरबा, सरगुजा और कांकेर जैसे क्षेत्र अब केवल खनिज संसाधनों के भंडार नहीं, बल्कि आदिवासी पहचान की आखिरी रेखाएं हैं—जिन्हें DBL, Jindal, Adani, Vedanta जैसी कंपनियां मिटाने पर आमादा हैं।
EIA नहीं, कॉर्पोरेट माफीनामा बन गई है पर्यावरण रिपोर्ट
पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (EIA) अब एक औपचारिक दस्तावेज नहीं रहा, बल्कि कंपनियों के लिए क्लीन चिट पाने का जरिया बन गया है। न जंगलों की वास्तविक स्थिति का आंकलन होता है, न वन्यजीवों की उपस्थिति का। जनसुनवाई के नाम पर बाहरी भीड़ जुटाकर ‘सहमति’ का खेल खेला जाता है, जबकि असली प्रभावित समुदायों की आवाज़ नज़रअंदाज़ कर दी जाती है।
क्या केवल पेड़ों की गिनती ही पर्यावरण है?
यह सवाल अब ज़ोर पकड़ रहा है:
- क्या विकास सिर्फ पेड़ काटने और खदानें खोदने का नाम है?
- क्या आदिवासियों की आजीविका, संस्कृति, पवित्र स्थल और जैव विविधता का कोई मूल्य नहीं?
- क्यों नहीं होती Social Impact, Livelihood और Biodiversity Assessment की कानूनी अनिवार्यता?
सरकारी संस्थाएं बन रहीं कॉर्पोरेट एजेंट
पर्यावरण मंत्रालय, वन विभाग और जिला प्रशासन, सब कॉर्पोरेट हितों के लिए काम कर रहे हैं। RTI डालने पर अधूरी या गुमराह करने वाली जानकारियां मिलती हैं। जिन परियोजनाओं पर स्थानीय समुदाय असहमति जता रहा है, उन्हें भी जबरन मंजूरी दी जा रही है। विरोध करने वालों पर दमनात्मक कार्रवाइयां हो रही हैं।
अब समाज देगा जवाब – नहीं होगी लूट और चुप्पी
जनसंगठनों, आदिवासी समुदायों, किसानों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने सरकार और कंपनियों को दो टूक संदेश दिया है:
- बिना हमारी सहमति कोई परियोजना नहीं!
- हमारी ज़मीन, जंगल और संस्कृति – अब और लूट नहीं!
- जनसुनवाई होगी, तो खुले मंच पर और सच्चाई के साथ होगी!
यह अंत नहीं, संघर्ष की शुरुआत है
DBL हो या Adani, Jindal हो या Vedanta — अब ‘EIA-जुगाड़’ संस्कृति का पर्दाफाश होगा। रायगढ़ से उठी यह आवाज़ अब राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले रही है। जहां प्रकृति और समाज को रौंदा जाएगा, वहां जनआंदोलन खड़ा होगा।
अब जनता पूछेगी – विकास नीति में ‘जन’ कहां है?

